’बिदेसिया’ की कहानी पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार प्रान्त के भोजपुरी भाषा भाषी प्रान्त की एक प्रचलित लोकगाथा पर आधारित है।
राय बहादुर भिखारी ठाकुर रचित बिदेसिया नाटक और बिदेसिया गीत आज बरसों से गांव और घर घर में प्रचलित है।
बिदेसी ठाकुर एक ऐसे बाप का बेटा था जिसने अछूतों और गरीबों के उद्धार के लिये अपना तन मन और धन लगा दिया था। पिता की मृत्यु के बाद, अनाथ बिदेसी गरीबी में ही अपने पैरों पर खड़ा हुआ। अपने पिता की तरह वह भी ग़रीबों और अछूतों का हमदर्द था-विदेसी के बड़े चाचा की विधवा, जो कि गांव में ठकुराइन भौजी कही जाती थीं, बिदेसी के हर कार्य का समर्थन करतीं-किंतु बिदेसी के दूसरे चाचा जो कि गांव के ज़मींदार थे हर बात में उसका विरोध करते।
अछूत धरमू चौधरी जिन्होंने कभी ज़मींदार से सौ रुपया कर्ज लिया था उसी के ब्याज में ज़मींदार की ग़ुलामी कर रहे थे। उनकी बेटी थी परबतिया जो घास बेचकर जीविका चलाती थी। बिदेसी का परबतिया से प्यार हो गया-ज़मींदार की बुरी नजर परबतिया पर थी, इसलिये बिदेसी उन्हें कांटे जैसा लगता।
ज़मींदार की पहिली पत्नी का भाई लट्टू और खवास मंगलू चोरी डकैती करते जिसमें ज़मींदार का भी हिस्सा होता दरोग़ाजी को मौक़ा हाथ न लगता कि वे इन सबको रंगे हाथों पकड़ सकें-पर वे इन सब पर नज़र रखे हुए थे। बसंता भगत जो अछूतों का चौधरी था और ज़मींदार के इशारों पर चला करता था, उसने ज़मींदार के कहने पर परबतिया के पिता धरमू को बिरादरी से बाहर कर दिया।
गाँव का झगड़ा शांत हो और धरमू चौधरी की इज्जत बच जाय, इसी उद्देश्य से बिदेसी गांव छोड़कर चला गया। मौक़ा पाकर ज़मींदार ने परबतिया को गायब करा दिया और उसका इल्जाम बिदेसी पर लगाया। गाँव में हाहाकार मच गया, लेकिन ज़मींदार की पत्नी ने हवेली के गुप्त तहख़ाने से परबतिया को निकालकर मौजी के सामने खड़ा कर दिया।
अपने और परबतिया की इस बेइज़्ज़ती को धरमू चौधरी सहन न कर सके-वह परलोक सिधार गए। उधर बिदेसी को जब परबतिया के गुम होने की सूचना मिली तब वह गाँव लौटा।
ज़मींदार के सामने तीन सवाल थे-परबतिया को किसी तरह हासिल करना- बिदेसिया को अपने रास्ते हटाना और अछूतों का संगठन तोड़ना।
क्या ज़मींदार अपनी चालों में सफल हुआ? क्या बिदेसिया और परबतिया एक दूसरे को पा सके? क्या अछूतों का संगठन टूट गया? इन सब रहस्यों का उत्तर, आपको भोजपूरी संगीतमय चित्र “बिदेसिया” देगा।
[from the official press booklet]